हम बारिश से गीले कच्चे रास्तों पर सँभलकर चल रहे थे और वो सुना रहे थे “भरे समुंदर घोंघा प्यासा”
पास से नर्मदा का पानी नहर में वेग से बह रहा था और गाँव के लोग हमारी राह रोक-रोक कह रहे थे कोई हमारी प्यास बुझाए।
ये जबलपुर के पिछवाड़े पठार में बसे गाँवों की कहानी है। यहाँ गाँव के गाँव प्यासे हैं। खापा ग्वारी, बिजौरा, पांपरी, दुर्गानगर, पडरिया, प्रेमनगर, डुंगरिया, शहपुरा जैसे करीब १५० गाँव इसी हाल में जी रहे हैं।
अब एक गाँव की बात। तब उस रोज हम सगडा से बरबटी पहुँच रहे थे। शाम दुर्गा नगर गाँव के कुएँ पर महिलाएँ पानी भर रही थीं। कुएँ में लगभग ३०० फ़ीट तक पानी निकालने के लिए डोर लटकती चली जा रही थी। और सब अपने-अपने अपने हिस्से के पानी के लिए शोर कर रहे थे। कुएँ सो जो पानी निकल रहा था वो उतना ही मैला था जितना दिल्ली की यमुना। इस कुएँ के सिवा गाँव में पानी का दूसरा स्रोत नहीं था। इस पानी के लिए भी रात रातभर लाइन लगानी पड़ती है। गाँव की महिलाएँ ये बताते हुए कह रही थीं कि पानी का दुख बहुत ज्यादा है। पेट के लिए हम दिनभर जबलपुर में ईंट गारे का काम करते हैं लेकिन पानी के लिए रात जागना खलता है। गाँव के लड़के कहने लगे हमारी तो शादियाँ पानी की वजह से टूट रही हैं। ये लोग बरगी डैम से उजड़े हुए लोग हैं। घर तक का पट्टा नहीं है। कभी कोई तो कभी कोई आकर घर भी तोड़ देता है। लेकिन महिलाएं कहती हैं कि हम तो इंदिरा गांधी के ज़माने से यहीं हैं और इसे छोड़कर जाएंगे भी नहीं। ये अलग बात है कि हमें उजाड़ने की कोशिश आए दिन होती ही रहती है। कहते कहते वो हाथ जोड़ने लगीं कि तकलीफ़ें तो बहुत हैं पर तुम तो हमें पानी दिला जाओ। “दसों उँगली जोड़कर हमारी यही प्रार्थना है।”
अगले दिन ख़ूब ज़ोर की बारिश हुई। हमें अपनी यात्रा को भी रोकना पड गया लेकिन इससे पानी को तरसते लोगों को ज्यादा लाभ नहीं होगा। अब ये डेढ़ सौ गाँवों के लोग पानी के बड़े आंदोलन की तैयारी में हैं।
बारिश में हमें बरबटी के एकलव्य स्कूल में रुकना पडा। ये स्कूल भी पानी की उसी क़िल्लत से जूझ रहा है जिससे सारे गाँव परेशान हैं। स्कूल अहाते के अंदर ५०० फ़ीट तक की खुदाई में भी पानी नहीं मिला।
अभी स्कूल में करीब ४०० बच्चों और २० स्टाफ़ के लिए पानी टैंकर से ही आता है।